Thursday 30 January 2014

ये दुनिया धर्मशाला है (ग़ज़ल)

हैं  कपड़े  साफ  सुथरे  से , पड़ा  काँधे  दुशाला  है
शहर  में भेडि़यों  ने आ, बदल  अब  रूप  डाला है

कहानी  रोज  पापों की, उघड़  कर  सामने  आती
किसी ने  झूठ  बोला था, ये  दुनिया  धर्मशाला है

समझ के आम जैसे ही, चुसे जाते सदा ही हम 
बनी अब ये सियासत तो, महज भ्रष्टों  की  खाला है

मथोगे गर मिलेगा नित, यहाँ अमृत भी पीने को
हमेशा सिन्धु सम जीवन, कहो मत विष पियाला है

सुबह से शाम तक झगड़ा, रखी वाणी  में दुत्कारें
'मुसाफिर' सुख को हमने ही , दिया घर निकाला है

Saturday 16 November 2013

गजल 

बताई बात मिलने की अगर तूँने जमाने को
बचेगा पास मेरे क्या बताओ फिर गँवाने को

न दिल को लगने पाएगा ये गम जुदाई का
तुम्हारी याद जो होगी हमें हँसने-हँसाने को


लगी सूंघने दुनिया यहाँ कुत्तों सी खुशबू को
लिखी जब गयी चिट्ठी किताबों में छुपाने को

किया फौलाद जैसा दुखों ने पालकर तन से
खुशी एक ही काफी हमें जी भर रूलाने को

गिरे अनमोल मोती जो सुख की कड़ी टूटी
सहेजे दामनों ने हैं नयन में फिर सजाने को